बुधवार, 17 फ़रवरी 2021

रमेश गौतम जी के नवगीत और चर्चा

वागर्थ में आज
ख्यात नवगीतकार 
Ramesh Gautam जी के दो नवगीत
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अद्वैत दर्शन की व्याख्या करते हुए समझाना कठिन है,परन्तु भक्ति काल के कवियों ने सीधे सरल शब्दों में ब्रह्म और जीव के बीच अद्वैत स्थापित कर दिखाया है। अभीष्ट से तदाकार हो जाने में ही भक्ति की उपलब्धि है। प्रकान्तर में आज हम सभी अहंकार की कुण्डली में जकड़े हुए हैं। तब प्रेम की अनुभूति कैसे हो। प्रस्तुत है इसी भाव-भूमि का एक नवगीत 

रमेश गौतम
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नवगीत --1
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मनमुटावों 
की लकीरें 
खींचना अब छोड़ दे मन। 

जोड़ ले 
टूटे हुए सम्बन्ध
सारे बाँसुरी से 
कब बने 
अन्तर्मुखी रिश्ते 
किसी जादूगरी से 
स्वर सुरीले 
ही हृदय में 
रोपते फिर से हरापन ।

देह की 
जिद्दी नदी ऐंठी 
अहम् के ज्वार में है 
नाव ढाई
अक्षरों की 
डूबती मँझधार में है 
पार जाए 
चीरकर
कैसे भँवर,अद्वैत दर्शन ।

क्यों भटकता
पीठ पर 
बाँध हुए अलगाव के क्षण
क्या पता
फिर से मिले,
या न मिले यह रेशमी तन 
ढूँढ तो 
अन्तर्जगत में 
तू लगावों के निकेतन। 
       

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स्त्री ही शून्य को विराट का रूप देती है  परन्तु फिर भी उसके कृतित्व का मूल्यांकन करने में हमारी दृष्टि संकीर्ण रहती है ।इसी मनःस्थिति का एक और नवगीत

नवगीत 2
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तुम
अँधेरो से घिरी हो
पर उजाले बाँटती हो ।

सीपियों में बंद
मोती सी 
तुम्हारी व्यंजना है
तुम कहो न 
पर तुम्ही से
रोशनी का पुल बना है
भैरवी गाकर 
सुबह  की
बेड़ियों को काटती हो ।

शब्द की 
हर भंगिमा को
मौन से पहचानती हो  
एक चुप्पी में
सिमटकर
बोलना भी जानती हो 
फूल झरते
हैं अधर से 
जब किसी को डाँटती हो ।

नाप पाया 
कब समय
सम्भावनाओं का ललाट
शून्य को 
तुमने किया सामर्थ्य से
इतना विराट 
तुम शिखर
से भी उतर कर 
खाईयों को पाटती हो ।

स्त्रियों ने
कब अकेले
सुख घरौंदों का जिया है 
बाँट कर
अमरित हलाहल 
स्वयं मीरा सा पिया है 
आँसुओं के 
बीच भी तुम 
मुस्कुराहट छाँटती हो ।
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-रमेश गौतम 
78 बी,संजय नगर बरेली  उ प्र 
मो-8394984865

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