मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

विद्यानन्दन राजीव पर एक चर्चा

  लय के बिना गीत की कल्पना व्यर्थ जैसा सूत्र वाक्य देने वाले विद्यानन्दन राजीव जी के गीतों पर :सार्थक चर्चा का एक प्रसंग
मनोज जैन
manojjainmadhur25@gmail.com

शिवपुरी से मेरा आशय भगवान शिव की नगरी से नहीं है पर हाँ,मेरे अपने ग्रह जिले से जरूर है,यद्धपि यहाँ मेरा आना जाना लगभग ना के बराबर ही रहा,फिर भी सम्बन्धों के मामले में धनी हूँ।साहित्यिक मित्रों की सूची पर जब गौर करता हूँ,तो मेरे अनेक मित्र यहाँ से आते हैं।यदि बात आज से तीन दशक पूर्व की करें तो साहित्य के संगम की तीन विचार धाराओं की त्रयी का सम्बंध यहाँ से जुड़ता है भले ही इस तिकड़ी में वैचारिक भिन्नताएँ हो पर तीनों अपने-अपने क्षेत्रों में अग्रणी रहे हैं,और आज भी बड़े सम्मान से अपने गुरुजनों को उनकी अपनी-अपनी शिष्य मंडली श्रद्धाभाव से याद करती है।
            त्रयी के पहले क्रम पर आते हैं डॉ राम कुमार चंचल जी जिन्होंने अपने समय में मंचों पर जमकर परचम फहराया तो,द्वितीय क्रम पर रहे डॉ परशुराम विरही जी ने लोक साहित्य को अपने लेखन के केंद्र में रख कर अपनी रचनात्मकता को अमली जामा पहनाया वहीं इस तिकड़ी में मेरे सर्वाधिक प्रिय आदरणीय डॉ विद्यानन्दन राजीव जी जो अब हमारे बीच नहीं है,ने नवगीत के उद्भव से लेकर विकास तक के योगदान में अपनी तरफ से अब तक निरन्तर नया जोड़ते हुए नवगीत को अंतिम श्वास तक समृद्ध किया बाबजूद इसके राजीव जी के हिस्से में किसी और के तो नहीं बल्कि अपनों की उपेक्षा के दंश जरूर आते रहे,मगर उनकी जीवटता ने साहित्य में होने वाली ओछी किस्म की राजनीति की कभी कोई परवाह नहीं की,इस आशय के संकेत मुझे उनके नवगीत संग्रहों "हरियल पंखी धान"और "हिरणा खोजे जल"के गीतों से गुजरते हुए मिले।
                         विपुल मात्रा में स्तरीय नवगीत लिखने के बाबजूद भी राजीव जी के कृतित्व पर किसी बड़े समालोचक ने अपनी कलम नहीं चलाई।डॉ.शम्भूनाथ सिंह जी ने भी चयन को लेकर दोयम दर्जे का व्यवहार न केवल राजीव जी के साथ बल्कि उस समय के अनेक प्रतिभाशाली नवगीतकारों जैसे रमेश रंजक,सत्यनारायण मयंक श्रीवास्तव ,विद्यानन्दन राजीव और महेश अनघ जैसे प्रातिभ रचनाकारों के साथ किया जिनकी ऐतिहासिक भूल को शायद ही समय माफ करे! फिर भी उक्त नाम चर्चा के केंद्र में तब से लेकर अब तक कहीं न कहीं निरन्तर बने हुए हैं!

      मेरा स्पष्ट संकेत समकालीन नवगीत समालोचक इंदीवर पांडेय जी dr Indiwar Pandey जी की तरफ भी है,हालाँकि यह सम्पादक की स्वयं की अपनी चयन दृष्टि का मामला भी होता है पर प्रश्न उठता है कि क्या नवगीत का कोई भी महत्वपूर्ण दस्तावेज ग्वालियर शिवपुरी के दो प्रमुख स्तम्भों को छोड़े बिना पूर्णता को प्राप्त हो सकेगा!
मेरे अपने ख्याल से तो बिल्कुल भी नहीं!
                                         नई ग़ज़ल के संपादक डॉ. महेंद्र अग्रवाल जी द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में पूछे गए एक प्रश्न "साहित्य पर राजनीति या राजनीति पर साहित्य के प्रभाव के संबंध में उत्तर राजीव जी की साफगोई का मैं कायल हूँ।
                       प्रश्न के उत्तर में राजीव जी ने जिस निष्पक्षता  से अपनी बात रखी वह प्रशंसनीय  तो है ही साथ ही अनुकरणीय भी है !ठीक यही बात उनके जीवन दर्शन से मेल भी खाती है।
राजीव जी कहते हैं कि
                        "वर्तमान में साहित्य का राजनीति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता,हमारे देश में साहित्य राजनीति का अनुगमन नहीं करता क्षुद्र स्वार्थों के लिए साहित्यकार नेताओं की प्रशंसा में कसीदे काढ़नें में,आत्म गौरव का अनुभव कर रहा है वस्तुतः राजनेताओं के कदाचरण और उनकी दो मुँही नीतियों को उजागर करना तथा जनता को जागरुक करने का काम साहित्यकार को करना चाहिए प्रकार करना चाहिए और वह उसका दायित्व है।"
खैर,राजीव जी के अप्रतिम योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता सम्प्रेषणीयता को वरीयता देने वाले राजीव जी गीतों में बिम्ब और प्रतीकों के कम से प्रयोग की उपयोगिता के हिमायती रहे हैं,साथ ही वह अपने आत्म कथ्य में बिम्ब व प्रतीक के प्रयोग में सतर्कता बरतने की बात कहना नहीं भूलते उनके गीत वातानूकुलित रूम में बैठ कर नहीं लिखे गए बल्कि उनका सृजन आम आदमी की पीड़ा को आत्मसात कर,आम आदमी को केंद्र में रखकर,आम आदमी के सामाजिक सरोकारों लिए ही रहा है।
            "हरियल पंखी धान" संग्रह के आत्म कथ्य में राजीव जी अपनी ही रचना प्रक्रिया के संकेत देते हैं उनका यह कथन कितना सार्थक बन पड़ा जब वह कहते हैं कि,"समसामयिक यथार्थ को आधार बनाकर गीत लिखने की बात का तात्पर्य है कदापि नहीं कि गीत-कवि का चिंतन नेगेटिव होना चाहिए क्योंकि जिंदगी में मात्र तिक्तता और कुंठा ही नहीं है,उसमें कभी कभी आनंद और उमंग के क्षण भी आते हैं यदि ऐसा न होता तो जीवन की कल्पना करना ही कठिन होता।परंतु रचना में प्रवृत्त होते समय, आम आदमी का रूप हमारी आंखों से ओझल नहीं होना चाहिए।जनसाधारण की बोलचाल की भाषा उसके खट्टे मीठे अनुभव,अपनी उपस्थिति से रचना में इस महत कार्य की पूर्ति करते हैं।कथ्य की विविधता गीत के प्रभाव क्षेत्र को असीमित बनाती है।क्योंकि आज की जिंदगी में आल्हाद के क्षण विरल हैं, तथा संत्रासों का बाहुल्य है।अतः आनुपातिक दृष्टि से सामाजिक परिवेश में व्याप्त संत्रास और कड़वाहट को मिलनी चाहिए।"
                                              लय के बिना गीत की कल्पना को व्यर्थ मानने वाले राजीव जी के सिद्ध कथन के साथ साथ सच्चे अर्थ में जनवाद और जनवादी सोच क्या होती है की सही सही पड़ताल विद्यानन्दन राजीव जी के संग्रहों में की जा सकती है।यों तो प्रदेशभर में उनके अनेक शिष्य हैं पर उनकी परम्परा का सही अर्थों में निर्वहन शिवपुरी से केवल विनय प्रकाश जैन नीरव Vinay Prakash Jain Neerav जी नवगीत लिखकर कर रहे हैं।
              यद्धपि डॉ मुकेश अनुरागी जी भी उनके प्रिय शिष्यों में रहे हैं,परन्तु मेरे देखने में उनकी शैली या परम्परा का कोई भी नवगीत अभी तक तो नहीं आया पर उनसे उम्मीद तो की ही जा सकती है।
टिप्पणी
मनोज जैन

आइये पढ़ते हैं विद्यानन्दन राजीव जी के तीन नवगीत

एक
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यों कब तक 
चढ़ते सूरज को 
कातर बने,प्रणाम करें !

दीन भाव से डरे -डरे से 
प्रभुता के घर क्यों जायें,
कुछ ऐसा कर गुजरें
गर्व-गुमान स्वयं चलकर आयें।

फिरकों में क्यों पड़े ,अडिग
निष्ठा से अपने काम करें ।

सही सलामत पाँव किस लिये
खोजें कोई बैसाखी,
छाँव पकड़कर बैठ ना जायें
चलना भी बहुत बाकी 
मिले निरापद कहीं ठिकाना 
महज तभी विश्राम करें !

चले शिखर की ओर छुड़ाकर 
दामन,कपट कुचालों से 
कभी न भय खायें ,लहराते
द्वेष-दम्भ के व्यालों से 
हीन भाव-विषबेल उगे तो 
उसका का काम तमाम करें!
दो
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प्यासे होंठ नयन चिन्ताकुल 
हिरना खोजे जल 

आज हमारे-भीतर बाहर 
मरुथल ही मरुथल !

गए सूखते /आशाओं के 
जंगल हरे-भरे 
भाव-विहग/सूनी डालों पर 
बैठे डरे डरे 
आशंकाओं का/आमुख है 
आने वाला कल !

होते हैं अपशगुन 
गगन में उड़ते हैं चीलें
जाल दरारों के बुनती हैं 
रीत गई झीलें
हिंसक मौसम है नदिया की 
निकल गया कल कल !

बादल बेईमान वचन से 
कैसा मुकर गया 

हिलता नहीं घोंसला
कजरी गाती नहीं बया 
कवलित हुई काल से 
असमय पनघट की हलचल 

कई विनोबा आए
खाली हाथों /चले गए 
मेहनत के मंसूबे 
पहले जैसे /छले गए 

पीड़ा गुमसुम रही
 मंच से /गाई गई गजल 

पकड़े रहे लोग आँचल
छाया दीवानी का
हुआ नहीं आरंभ /प्रगति की 
अग्नि कहानी का 
बलिपथ पर चलने की
कोई /करता नहीं पहन
तीन
----/
घेर लिया व्यालों ने 
चंदन -वन/ पुनः एक बार !

सूरज का नाम नहीं 
सगन हुए और भी धुंधलके 
रीत गया अमृत तत्व 
जीवन के घट ऐसे छलके
 अपमानित हुआ सदाशय 
पग-पग सम्मानित हुआ अनाचार !

सोख गए लहू स्याह काया का 
बांट लिया झलकता पसीना 
लोगों ने निबलों के हाथों से 
निठुर हो निवाला तक छीना 
हिलती है नाव बवंडर उठते 
छूट रहे दुर्बल हाथों से पतवार !

एक-एक कर बुजते जाते हैं 
पावनता के प्रतीक ज्योति-पुत्र दिये 
होना होगा अर्पित ज्योतिपथी
मानव को प्रतिपल आलोक के लिये
डस न कहीं जाये मानवता को 
यह सर्पिल घना अंधकार!

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