मंगलवार, 16 फ़रवरी 2021

प्रमोद पवैया के गीत

अन्तिम स्वर में राम पिरोकर हो जाओ बैकुंठाधीन 
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तीखे तेवर का अनूठा कवि प्रमोद पवैया
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टिप्पणी
मनोज जैन
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                                          ग्राम दिघावन,तहसील उदयपुरा,जिला रायसेन मध्य प्रदेश में जन्मे 33 वर्षीय प्रमोद पवैया मैच्योर गीतकार हैं उनकी मैच्योरिटी का अंदाजा उनके गीतों की बानगी में देखने को बखूबी मिलता है।अनेक लेखकीय साहित्यिक मसलों में रचनाकार का वय से कोई सम्बन्ध नहीं होता।
                           वय से तो रचनाकार वृद्ध होता है पर लेखन में ताउम्र बेचारा बच्चा ही बना रहता,वृद्ध होकर भी परिपक्व नहीं हो पाता।अनेक पुस्तकें सृजित कर लेने के बाबजूद भी गीतों में मैच्योरोटी सिरे से नदारद रहती है।
                पुस्तकें उलटने,पलटने,खँगालने से मैच्योरिटी वाला दुर्लभ तत्व ढूँढें से भी नहीं मिलता,तो नहीं मिलता!खैर,मैं यहाँ युवा कवि प्रमोद पवैया की बात कर रहा हूँ।
                                   प्रमोद सच्चे अर्थों में कवि हैं।गीतों के फॉर्मेट पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो यह फार्मेट कोई नया फॉर्मेट नहीं है,रामावतार त्यागी जी से प्रसूत इसी पारम्परिक शैली के प्रचलित फार्मेट में अनेक रचनाकार तब से लेकर अब तक सृजन करते आये हैं।
              राजधानी के वरेण्य कवि एवं प्रखर सम्पादक राम अधीर जी को हम जैसे गीत के कुल द्रोही कृतघ्नियों ने जीते जी भुला दिया,जिन्होंने गीत के लहू लुहान शरीर को अकविता की भीषण ज्यादतियों के संकट काल में अपने संकल्प के रथ में गीत को पूरी श्रद्धा के साथ बैठा कर उसे शरण दी। 
         प्रखर सम्पादक राम अधीर जी की शैली भी रामावतार त्यागी जी की शैली से हू-ब-हू  मिलती जुलती रही है,ख्यात कवि मयंक श्रीवास्तव जी Mayank Shrivastava जी ने भी बहुत से गीत इसी शैली में रचे, कुछ अन्य गीतकारों की भी शैली यही है,और वह इन दिनों मंचों पर सफल कवि का तमगा भी हासिल कर चुके हैं।प्रमोद भी इसी परम्परा के धारदार कवि हैं उनके कथ्य में तीखापन हैं ।शैली में विशिष्टता हैं।छन्द भी लगभग निर्दोष है।इन गीतों का एक खास गुण यह है कि यह सीधे जनमानस की जुबान पर चढ़ जाते हैं।
        प्रमोद से संवाद स्थापित करने के बाद जो तथ्य मेरी समझ में आया उस निष्कर्ष को यदि सार संक्षेप में रखूँ तो कहना ना होगा कि प्रमोद का रुझान पूरी तरह मंचीय है।और मंच की राह प्रमोद जैसे प्रातिभ व्यक्ति को सरल नहीं है मंच पर अधिसंख्य खोटे सिक्के हैं जो प्रमोद की प्रतिभा की खरी स्वर्ण मुद्रा  को शायद ही चलने दें!
                           फिर भी प्रमोद को हिम्मत नहीं हारनी चाहिये,प्रमोद चाहें तो अपने अनथक प्रयासों से सम्राट अशोक की तरह खोटे सिक्कों को प्रचलन से बाहर कर सकते हैं।प्रमोद पवैया को एक मित्र के नाते समकालीन  गीत नवगीतकारों के ताल मेल बनाने और उन्हें पढ़ने की सलाह जरूर दूँगा।
                 प्रमोद पवैया  की प्रतिभा गीतों में सर पर चढ़ कर बोलती है।इस युवा कवि को बहुत बधाइयाँ प्रस्तुत हैं प्रमोद के तीन गीत प्रतिक्रियार्थ
प्रस्तुति

मनोज जैन

वरदानों में रहे निकटतम
अभिशापों   में   दूर  हुए,
ऐसे अद्भुत लोग हमारे जीवन में भरपूर हुए!

नज़र गड़ाए  घूम  रहे  थे
खुशियों   के   पैसारे  पर,
नाक सिकोड़े बैठे हैं अब
आँसू    के   बँटवारे   पर,

मुस्कानों में उत्सव - से थे
पीड़ा   में     दस्तूर    हुए,
ऐसे अद्भुत लोग हमारे जीवन में भरपूर हुए!

निष्ठाओं की वेदी पर जो
अंगद  जैसे   दूत    लगे,
देवत्वों  के  छिनते ही वे
भूतकाल  का भूत   लगे,

सम्मानों  में   प्रेमपूर्ण  थे
अपमानों   में   क्रूर   हुए,
ऐसे अद्भुत लोग हमारे जीवन में भरपूर हुए!

दुख की झीलों में अपनों का
सही  बिम्ब  दिख  जाता   है,
संबंधों   का  महल लाभ की
नीवों   पर   टिक    पाता  है,

दानी के प्रति रहे विनत जो
याचक   को    मग़रूर  हुए,
ऐसे अद्भुत लोग हमारे जीवन में भरपूर हुए!!

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अंदर जितने अस्त व्यस्त थे बाहर उतने शांत रहे,
हम  जैसे  लोगों  के इतने - से जीवन वृत्तांत रहे!

बाल कथाओं से भी छोटी
कर्म-कथा के नायक  हम,
हर  प्रसंग  के  संक्षेपों  में
छोड़े  जाने  लायक   हम,

उपन्यास में कहीं रहे तो इति श्री के उपरांत रहे,
हम जैसे  लोगों  के  इतने -से जीवन वृत्तांत रहे!

छप्पर  फाड़ - फाड़ कर बरसा
किसी - किसी   पर  अम्बर भी,
किसी-किसी ने सिद्ध कर लिया
खुद   को   पीर  - पयम्बर  भी,

अपनी छोटी-सी  झोली में मुट्ठीभर एकांत रहे,
हम जैसे लोगों के इतने-से  जीवन वृत्तांत रहे!

हम समिधाएं बने हवन की
जब   दूषित   माहौल   हुए,
शुचितायें जब हुईं कलंकित
हम    बाबा   हरदौल    हुए,

सीधी-सी विचारधारा के सीधे-से सिद्धांत रहे,
हम जैसे लोगों के इतने-से जीवन वृत्तांत रहे!

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हमें कुएं का मेढ़क कह दो
या  छोटी  झीलों  की मीन,
लेकिन पहले हमें सभ्यता का विचलन कह लेने दो!

जीवन-संचित-तप-घट हठ की
पदचापों     से      फूट      गए,
विश्वामित्र       सरीखे      योगी
नृत्यकला    पर      टूट      गए,

कहते  रहो  मेनकाओं   को
तपखण्डन की सही मशीन,
हमें अप्सराओं पर अंकित हर जूठन कह लेने दो!

आते - जाते युग ने मन से
सदग्रंथों  को  सींच  लिया,
सद्भावों  का  अर्थ अनर्थों
की सीमा तक खींच लिया,

कहो पुस्तकों को चरित्र के
नीचे  बिछी   हुई   कालीन,
हमको पढ़ी लिखी पीढ़ी का अंधापन कह लेने दो!

लंका   की  विचारधारा   है
रामराज्य   की   नीवों    में,
मारीचों-सा छल व्यापित है
तर्पण    की   तरकीबों   में,

अन्तिम स्वर में राम पिरोकर
हो      जाओ      बैकुंठाधीन,
उससे  पहले हमें कर्म का कुछ विवरण कह लेने दो!

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