गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

योगेंददत्त शर्मा भाग एक प्रस्तुति : वागर्थ

भाग- 1.क्रमशः
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जाल में हमेशा सत्यव्रती फंसते:-डॉ योगेन्द्रदत्त शर्मा जी के एक नवगीत के बहाने 
के नवगीतों पर चर्चा की पूर्व पीठिका
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प्रस्तुति और टीप
मनोज जैन
106 विट्ठल नगर
भोपाल
462030
मोबाइल
9301337806
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आत्मीय मित्रो 
आज आपके समक्ष सोशल मीडिया,खासतौर से फेसबुक पर अति सक्रिय नवगीतकार (साहित्यिक अभिरुचि के जिन मित्रों ने इनके संग्रहों को पढ़ा है,वह तो सब के सब समवेत स्वरों में इन्हें नवगीतकार ही कहेंगे,और जिन्होंने नहीं पढ़ा है या अपनी गीत विषयक 'ठाकुर की मूछ तो ऊँची ही रहेगी' की टेक के चलते जिनके नाक,कान, मुँह और सिर गीत के आगे जुड़े 'नव' शब्द देखकर ही भन्ना जाते हैं,उन दो एक सम्पादकों के साथ-साथ हाल ही में कुकुरमुत्तों के छत्तों की तरह उग आए पेजो के एडिटर्स में से एक,शेष को छोड़ दें तो)के नवगीतों पर अपनी श्रृंखलाबद्ध चर्चा केंद्रित करने से पहले इनके विचारों के आलोक में उनका एक नवगीत आपको पढ़वाना चाहता हूँ।
        किसी भी रचनाकार को समझने के लिए बहुत जरूरी है उस रचनाकार की रचना-प्रक्रिया को अनेक कोणों से समझा जाय,इस प्रक्रिया से गुजरे बगैर आप रचना के मर्म तक शायद ही पहुँचें, और पहुँच भी गए तो जो आपका स्पर्श होगा वह सतह का ही होगा तल का तो बिल्कुल भी नहीं !
     आइये पढ़ते हैं गाज़ियाबाद के वरेण्य कवि डॉ योगेन्द्र दत्त शर्मा जी का एक नवगीत उन्हीं के नवगीत विषयक कथ्य के साथ बकौल योगेन्द्र दत्त शर्मा जी:-
                "नवगीत पर आजकल अजीब संकट मंडराया हुआ है। एक विचित्र अराजकता इस समय दिखाई दे रही है। फेसबुक पर त्वरित टिप्पणियों के इस दौर में सोचने-समझने और चिन्तन करने का अवसर ही नहीं मिल रहा है।
                                       पारंपरिक गीत लिखने वाले आत्ममुग्ध गीतकार नवगीत के अस्तित्व को ही नकार रहे हैं। मजेदार बात यह है कि वे ही अपने घिसे-पिटे कथ्य और शिल्प पर आधारित गीतों को नवगीत मानने-मनवाने का आग्रह भी पालते दिखाई दे जाते हैं।
             इधर नवगीत रचने में प्रवृत्त कुछ नये-पुराने रचनाकार अतिरिक्त उत्साह से स्फूर्त होकर कुछ भी रचने, अपने रचे हुए पर ठप्पा लगाने-लगवाने के लिए उत्सुक रहते हैं। इस क्रम में वे 'तोड़ने ही होंगे पुराने मठ' की झोंक में नये हठ के साथ नये मठ गढ़ने का उपक्रम करने की कोशिश में लगे हुए प्रतीत होते हैं।
       ऐसा लगता है जैसे इस समय समझ, सृजन और समीक्षा.... सब अधकचरेपन का शिकार हैं। ऐसी स्थिति में विमर्श भी अधकचरेपन से बच नहीं सकता। इस सबसे नवगीत का भला नहीं होने वाला।
             नवगीत को पहले 'गीत'  होने की शर्त तो पूरी करनी होगी।कवित्वहीनता, मात्रा-पतन, छंद-स्खलन, कथ्य को सीधे सड़क से उठाकर सपाट ढंग से प्रस्तुत करना गीत-रचना नहीं कही जा सकती। 
        नवगीत के सामने छंदहीन कविता की ही चुनौती नहीं है, छंदोबद्ध गद्य भी उसकी परेशानी बढ़ा रहा है।डा. शंभूनाथ सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह उमाकांत मालवीय, देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र', ओम प्रभाकर , माहेश्वर तिवारी, उमाशंकर तिवारी, गुलाब सिंह जैसे वरिष्ठ नवगीतकारों के मार्गदर्शन के अभाव में नवगीत अपनी दशा-दिशा से भटकता जा रहा है। 
       बहुत-से रचनाकारों को तो सीखने-समझने या मार्गदर्शन में ही कोई रुचि नहीं दिखाई देती। बिना किसी रहनुमाई के, 'नवगीतनुमाई' तो हो सकती है, नवगीतधर्मिता नहीं।यों वितंडावाद के लिए तो कुछ भी दरकार नहीं है।"

टिप्पणी
मनोज जैन

अंतस् में दुरभिसंधि
छद्म, कपट बसते
किन्तु अधर पर अंकित
सत्यमेव जयते !

भीतर छल-छंद-द्वेष
बाहर मुस्कानें
इस कुचक्र को आखिर
कैसे पहचानें
     लोग वार कर जाते
     बस हंसते-हंसते !

इस मायानगरी में
कुछ न पारदर्शी
चेहरे मासूम लिये
स्वर मर्मस्पर्शी
     देखकर हवा का रुख
     पैंतरा बदलते !

दूध-धुली, गंध-पगी
सौम्यता, सरलता
शब्दों का सम्मोहन
भाव की तरलता
     लगता है डर, इनके 
     पास से गुजरते !

नेह, प्यार, आलिंगन
आतुर गलबहियां
आसपास मंडरातीं
आकृतियां, छवियां
     रहना है सकुशल, तो
     दूर से नमस्ते !

करते ही रहते जो
हर पल सच का वध
उनके ही हाथों में
हर दुख की औषध
     जाल में हमेशा ही
     सत्यव्रती फंसते !

यह कैसा युग, जिसमें
लोग जी रहे हैं
हर समय हताशा की
घूंट पी रहे हैं
     किसके जाते करीब
     किस-किससे बचते !  

                                    © योगेन्द्रदत्त शर्मा

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