अप्रतिम नवगीतकार महेश उपाध्याय के पाँच और नवगीत
1
हम टिकने के लिए
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एक तेज़ धारा में आदमक़द
हम टिकने के लिए
खड़े हैं कतारों में जैसे हों एक अदद
हम बिकने के लिए
जीवन में तिनका होना
कौन चाहेगा
बस इनका-उनका होना
धब्बों को धब्बों से धोते हैं
चमकदार —
हम दिखने के लिए
2
कल न मिलूँगा वहाँ
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मुझे तुम देख रहे हो जहाँ
कल न मिलूँगा वहाँ ।
पलछिन-छिनपल बन्धु
तुम्हारा पथ मैं छोड़ रहा हूँ
राजमार्ग को त्याग
नई पगडण्डी मोड़ रहा हूँ
राह कौन जाने आगे की
पहुँचूँगा मैं कहाँ ।
ठकुर सुहाती चाहें जो
सामन्तवाद उनकी थाती
लोक-चेतना ने सौंपी
हम को जनवादी पाती
रचने को इन्सान नया
जूझ रहे हैं जहाँ तहाँ ।
3
अब कुछ भी
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अब कुछ भी सहा नहीं जाता
दरियाई जोश भरा द्वेष
ठान रहा नावों से बैर
टूटे विश्वासों के कगार
अपने से ज़्यादा है ग़ैर
कारण भी कहा नहीं जाता
अब कुछ भी सहा नहीं जाता
4
आदर और निरादर
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आँधी आएगी
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तुम !
लँगड़े हो
एक टाँग पर खड़े रहो
तुम्हारा इसी में
आदर होगा ।
तुम्हारी दोनों आँखें
सलामत हैं
फिर भी तुम सबको
एक ही आँख से देखते हो
तुम्हारा निरादर होगा ।
5
ज़हरीला सूनापन
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माना कुछ पास नहीं है अपने
कहने को बातें क्या कम हैं ?
मित्रों में गेन्द-सी उछालेंगे
दो बातें बासी अख़बारों की
माथे पर ग़ाली-सी फेंकेंगे
सौगातें पिछले इतवारों की
देखेंगे कैसे ?
डस पाएगा ज़हरीला सूनापन
संध्या तक इतने हम दम हैं
क्या कम हैं ?
बहसों में टूटेंगी आवाज़ें
यूँ ही दिन बीतेगा
मुफ़्ती जल-पान के सहारे में
(बैठे हैं)
कोई तो हारेगा, जीतेगा
धुँधलापन ओढ़कर चलेंगे घर
रातों को अनसुलझे ग़म हैं
क्या कम हैं ?
6
साँध्य-गीत
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टूट गई
धूप की नसैनी
तुलसी के तले
दिया धर कर
एक थकन सो
गई पसर कर
दीपक की ज्योति
लगी छैनी
आँगन में
धूप-गन्ध बोकर
बिखरी
चौपाइयाँ सँजोकर
मुँडरी से उड़ी
कनक-डैनी
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वागर्थ में आज
हिंदी के अप्रतिम नवगीतकार
महेश उपाध्याय जी के नवगीत
प्रस्तुति
मनोज जैन
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1
पाँवों ने छोड़ दिया घर
अनचाहे काम के लिए
लानी है चार रोटियाँ
नन्हे आराम के लिए
टाँककर रजिस्टर में हाज़िरी
हम नई मशीन हो गए
घर पर तो एक अदद थे
दफ़्तर में तीन हो गए
शीशे से टूटते रहे
थोड़े से दाम के लिए
टूटी मुस्कानों पर अफ़सरी
एक कील ठोंकती रही
थोथी तारीफ़ बाँधती गई
हाथों की गति रही सही
जड़ता से जूझते रहे
काग़ज़ी इनाम के लिए ।
2
काम पड़ा है
दो अदद थकान के
पहाड़ों के बीच
घाटी-सा काम पड़ा है
कमरे के चेहरे पर
आब नहीं
अधजले उदास कई क्षण पड़े
इधर-उधर
जिनका कोई कहीं
हिसाब नहीं
चाँदी के तारों से
कसा हुआ दिन
कितना मायूस खड़ा है ?
घर भर में काम पड़ा है ।
3
दोपहर : नश्तर
ओ मेरे अब ! दूँ तो क्या दूँ तुझे
पास मेरे कुछ नहीं है रे,
सिर्फ़ कुछ हारी-थकी बातें
सुबह की ताज़ी हवा :
कड़वी दवा
दोपहर : नश्तर
शाम : भद्दी गालियों
का नाम
रात : ठण्डा ज्वर
ज़िन्दगी टूटी हुई टहनी
मारती है हवा जिस पर
ठोकरें लातें
पास मेरे कुछ नहीं है रे,
सिर्फ़ कुछ हारी-थकी बातें ।
4
कैसी आज़ादी
उठो देश के जन-गण-मन
दे दो अपना तन-मन-धन ।
कैसी आज़ादी भाई
भाई का दिल है काई
काई खाती अपनापन
अपनापन ही है जीवन ।
आँगन की बदली काली
काली निगले ख़ुशहाली
ख़ुशहाली होगी रखनी
रख पाएँ तब अमन-चमन ।
छुपा बहारों में पतझर
पतझर की ख़ूँख़्वार नज़र
नज़र रहे चौकस आगे
आगे बढ़ते चलें चरन ।
5
मौक़ापरस्ती पंख
छितर जाएँगे सुनो !
मौक़ापरस्ती पंख काग़ज़ के
एक दिन की मेज़ पर सज के
ये अपने पाँव खड़ी घास
टीले के पास
(मौसम भर ही सही)
छोड़ेगी अपना इतिहास
भूमिका जो हो रहे हैं
भूमि को तज के
(वे) छितर जाएँगे
एक दिन की मेज़ पर सज के
6
अनकही कहानी
एक रंग को जीवन कहना
ग़लत बयानी है
जीवन रंग-बिरंगा
इसकी साँस रवानी है
मरुथल से हरियाली तक
झरने से सागर तक
इसके ही पन्ने बिखरे हैं
घर से बाहर तक
सौ-सौ बार कही फिर भी
अनकही कहानी है
कभी बैठ जाता है
जीवन सूखे पत्तों में
कभी उबल पड़ता है
मज़बूरी में जत्थों में
धरती से आकाश नापता
कितना पानी है ?
7
आदमी का फूल
रंग भर-भर कर रह गया है
आदमी का फूल
एक परचा थामने सम्बन्ध का
कोष खाली कर रहा है गन्ध का
रोज़ होता जा रहा है शूल
भीतर आदमी का फूल
काट कर सम्बन्ध आदमज़ात से
बाँध अपने पाँव अपने हाथ से
वस्तुओं को दे रहा है तूल
आदमी का फूल
कवि परिचय
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जन्म 11 जुलाई 1941
जन्म स्थान गाँव नदरोई, लोधा, अलीगढ़, उत्तरप्रदेश
कुछ प्रमुख कृतियाँ
आँधी आएगी, आदमी परेशाँ है, जल ठहरा हुआ (तीनों नवगीत संग्रह)
विविध
कवि रमेश रंजक के सगे छोटे भाई और हिन्दी के अप्रतिम नवगीतकार।
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